चोटी की पकड़–30

एक ठुमरी गाई :-


"जाने दे मोको सुनो सजनवा,

काहे करत तुम नित नित मोसन रार,

नहीं, नहीं मानूँगी तिहार।

छेड़ करत, नहीं मानत देखो री सखि,

मेरी सुनै ना,

बिंदा करत अब नित नित मोसन रार,

नहीं, नहीं मानूँगी तिहार।"

अभी दुपहर नहीं हुई। भैरवी का वक्त पार नहीं हुआ। श्रीश राजा साहब को गंभीर, और चलते हुए जहाज़ के सिवा कोई आवाज न आती हुई देखकर एजाज समझ गई-लोग कान लगाए हुए हैं। वह खुशी से भर गई।

एजाज ने छेड़ा :

"यामिनी न येते जागाले ना केन

बेला होल मरि लाजे।

शरमे जड़ित चरणे केमने

चलिब पथेरि माझे।

आलोक - परशे मरमे मरिया

हेर लो शेफालि पड़िछे झरिया

कोनो मते आछे पराण धरिया

कामिनी शिथिल साजे।

निबिया बांचिल निशार प्रदीप

ऊषार बातास लागि,

नयनेर शशी गगनेर कोने

लुकाय शरण मागि।

पाखी डाकि बले गेल विभावरी,

वधू चले जले लइया गागरी,

आमिओ आकुल कवरी आवरि

केमने याइब काजे।"

रवींद्रनाथ का गीत; कलकत्ता का आधुनिक फैशन एजाज ने सच्चा अदा किया-वही उच्चारण, वही अंग्रेजियत। राजा साहब पर और आधुनिक शिक्षित बंगालियों पर इसी स्कूल का सबसे अधिक प्रभाव है, रवींद्रनाथ के गानों में स्वर का सबसे अधिक मार्जन मिलता है। राजा साहब की आँखों के सामने गंगा के शुभ्र फेन की तरह गीत का अस्तित्व तैरने लगा।

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